काशी: आदित्य शिव की नगरी

काशी, जिसे काशीपुरी, बनारस, वाराणसी, शिवपुरी, विश्वनाथ पुरी आदि नामों से जाना जाता है, उत्तर प्रदेश में स्थित है और यहां पवित्र गंगा के पश्चिमी तट पर विराजमान है।

इस नगर का इतिहास विभिन्न ग्रंथों में उच्च कीर्ति प्राप्त करता है और यहां की भव्यता को बयां करना अत्यंत कठिन है। इस नगर में हिन्दू, बौद्ध, और जैन धर्म के साथ-साथ अनेक परंपराएं और सांस्कृतिक धाराएं मिलती हैं, जो इसे एक अद्वितीय धार्मिक और सांस्कृतिक संसार में बनाती हैं।

काशी नगर अद्वितीय है, इसके हर कण में शिवमयी भरा है, और यहां का संबंध भगवान शिव के साथ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहां का वातावरण ही ऐसा है कि यहां आने वाला हर यात्री अपने आत्मा के आद्यात्मिक साहस को जागृत करता है।

इस रूपरेखा के माध्यम से हमने काशी के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विविधता को सुधारा है, जो इसे अद्वितीय और प्रेरणादायक बनाता है।

काशी नगर, जिसे सर्वप्रकाशिका कहा गया है, अपने आध्यात्मिक ज्ञान के सागर से प्रशित होती है। यहां पहुंचने पर हर प्राणी और वस्तु अपनी तेजस्वी प्रकृति से युक्त हो जाती हैं। इसलिए, काशी का आनंद सिर्फ उसे समझने वाले को ही प्राप्त हो सकता है।

सर्वधर्म संस्कृति का मेलजोल

काशी न केवल हिन्दू धर्म का प्रमुख स्थल है, बल्कि यह बौद्ध और जैन धर्म के भी आध्यात्मिक आदान-प्रदान का केंद्र है। इसे विश्व की प्राचीनतम नगरों में से एक माना जाता है, जिसे लगभग 5000 वर्ष पहले भगवान शिव ने अपनी दिव्य आशीर्वाद से समृद्ध किया था।

काशी के पवित्र घाट:

काशी में कुल 88 घाट हैं, जो वर्षों से पवित्र और शांत हैं। इन घाटों पर प्रतिदिन गंगा आरती का आयोजन होता है, जो अत्यंत प्रसिद्ध है । यहाँ हजारों की संख्या में श्रद्धालु स्नान एवं पूजन करने आते हैं। माना जाता है की काशी के इन घाटों पर स्नान करके लोग अपने पाप कर्मों से मुक्ति पा जाते हैं ।

यहां का प्रत्यक्ष घाट अत्यंत सुंदर और विशेष है। यहां के कुछ मुख्य घाट का उल्लेख:-

1. मणिकर्णिका घाट

मणिकर्णिका  घाट वाराणसी के प्रमुख घाटों में से एक माना जाता हैं। “मणिकर्णिका” शब्द दो संस्कृत शब्दों से लिया गया है, जिसमें “मणि” माणिक्य और “कर्णिका” कर्णभूषण का संकेत करता है। इसे जीवन चक्र का अंतिम विश्राम स्थल कहा जाता है।

पुराणों के अनुसार, जब भगवान शिव और पार्वती इस स्थान पर आए थे, तो भगवान शिव के कान से एक माणिक्य कर्णभूषण कुंडल का अक्षय पदार्थ गिरा था, जिससे इसे मणिकर्णिका कहा जाता है।

मणिकर्णिका घाट को मुक्ति का स्थान, पौराणिक आधार, एवम जीवन और मृत्यु के संगीत का एक अधभुत संगम माना जाता है।

2. अस्सी घाट

यह वाराणसी के प्रमुख घाटों में से एक माना जाता है। इसका नाम “अस्सी” संस्कृत शब्द “अस्ति” से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘असीम’ या ‘अनंत’। मान्यता है कि जब माता दुर्गा ने पातालवासी शंभु व निशुंभ नामके दैत्यों का वध किया था जिसके उपरांत उन्होंने अपनी तलवार को इस स्थान पर फेंक दिया था। और जिस जगह पर माँ दुर्गा की तलवार गिरी थी वह स्थान एक कुंड में परिवर्तित हो गया।  यही अस्सी घाट कहलता है ।

3.पंचगंगा घाट

पंचगंगा घाट काशी के पंच तीर्थों में से एक है। यहां की धार्मिक मान्यता यह है की यहां स्नान मात्र करने से पिडियों के पाप नष्ट हो जाते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस घाट पर गंगा, यमुना, विशाखा, धूतमाता और किरण जैसी पवित्र नदियों का संगम होता है ।

पुराणों के अनुसार पंचगंगा में स्नान के बाद श्री हरि विष्णु अर्थ बिंदु माधव के दर्शन करने चाहिए। श्रद्धालु यहां पर तीर्थराज प्रयाग कार्तिक मास में स्नान करते हैं।

पंचगंगा घाट का नवीनीकरण 1580 ईसवी में रघुनाथ टंडन ने करवाया था। यहां पर स्थित बिंदु माधव मंदिर का निर्माण राजस्थान के राजा मानसिंह ने करवाया था। इतिहासकारों के अनुसार इस मंदिर को औरंगजेब ने ध्वस्त करके इसके स्थान पर आलमगीर मस्जिद का निर्माण करवाया था।

वर्तमान समय में पंचगंगा घाट को लाल पत्थरों से बनवाया गया है जो अतियंत सुंदर एवं रमणीय है।

4. दशाश्वमेध घाट

दशाश्वमेध का अर्थ होता है ‘ दस  अश्वमेघ यज्ञ’ । काशीखण्ड व पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा जी ने इस स्थान पर 10 अश्वमेघ यज्ञ किये थे, इस कारण इसे दशाश्वमेध घाट कहा जाता है । इसी घाट पर प्रयागराज प्रयागेश्वर विराजमान है ।

5. हरिश्चंद्र घाट

हरिश्चंद्र घाट, काशी का दूसरा शवदाह घाट है। यह मैसूर और गंगा घाट के बीच में स्थित है। यहां हिंदू परंपरा के अनुसार शवदाहन का कार्य किया जाता है, इसलिए इसे मोक्ष स्थल के रूप में सम्मानित किया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कल्लू डोम नामक एक राजा ने हरिश्चंद्र को खरीदा और उन्हें शमशान कार्य का उत्तरदाता बनाया था। इस संदर्भ में, राजा हरिश्चंद्र ने अपने बेटे का अंतिम संस्कार इस घाट पर किया था। इस महत्वपूर्ण क्षण के लिए, उन्होंने अपनी पत्नी से एक साड़ी का एक टुकड़ा दान किया, जिसका परंपरागत रूप से उपयोग होता है। इसी कारण से इसे “हरिश्चंद्र घाट” कहा जाता है।

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